जानिये, बाबा साहेब अंबेडकर के दूसरे विवाह पर क्यों फैली थी नाराजगी
अक्सर ये सवाल उठाया जाता है कि डॉ. भीमराव अंबेडकर ने जब दूसरी बार शादी की तो एक ब्राह्मण महिला से क्यों की। इस पर खासी नाराजगी भी फैली थी। विवाद भी हुआ। इसी से जुड़ा एक विवाद और भी है कि अंबेडकर के निधन के बाद खुद उनके बेटे पुत्र औऱ करीबियों ने पत्नी के साथ खराब व्यवहार किया।

निधन के बाद पत्नी पर लगे गंभीर आरोप
अंबेडकर के निधन के बाद न केवल उनकी पत्नी पर गंभीर आरोप लगाए गए बल्कि उनकी मौत का भी जिम्मेदार ठहराया गया। निधन को कथित साजिश से जोड़कर देखा गया। प्रधानमंत्री नेहरू ने मामले की जांच की मांग की गई। हालांकि जांच के बाद सविता जी को क्लीनचिट मिल गई।
बाबा साहेब की पहली शादी 1906 में हुई थी। बाबासाहेब ही 15 साल के थे औऱ पहली पत्नी रमाबाई और कम उम्र की। शादी के बाद अंबेडकर की पढाई जारी रही। बैरिस्टरी की पढ़ाई करने के लिए वह इंग्लैंड गए। लौटकर दलितों के उत्थान के अभियान से जोरशोर से जुड़ गए। पहली पत्नी से पांच बच्चे हुए। केवल बड़े बेटे य़शवंतराव ही लंबे समय जीवित रहे। बच्चे ज्यादा पढ़ भी नहीं सके थे। यशवंतराव भी केवल मैट्रिक तक ही शिक्षा पा सके थे। हालांकि बाद में यशवंत ने रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया बनाई। विधायक भी बने। बाबा साहेब काफी व्यस्त रहते थे। पारिवारिक जिम्मेदारियों की ओर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाते थे। लंबी बीमारी के बाद रमाबाई का 1935 में निधन हो गया। अगले 13 सालों तक बाबा साहेब ने विवाह के बारे में सोचा भी नहीं।
15 अप्रैल 1948 को की दूसरी शादी
1940 के दशक के आखिर में वह जब भारतीय संविधान को बनाने में बेहद व्यस्त थे तभी स्वास्थ्य की जटिलताएं उभरनी शुरू हुईं। नींद नहीं आती थी। पैरों में न्यूरोपैथिक दर्द रहने लगा। इंसुलिन और होम्योपैथिक दवाएं किसी हद तक ही राहत दे पाती थीं। इलाज के लिए वह बंबई गए। डॉक्टरों ने सलाह दी कि उन्हें अब ऐसे साथी की भी जरूरत है, जो न केवल पाककला में प्रवीण हो बल्कि मेडिकल ज्ञान वाला भी, ताकि उनकी केयर कर सके। चूंकि डॉक्टर सविता बेहद समर्पित तरीके से इलाज कर रही थीं लिहाजा वो उनके करीब भी आते गए। 15 अप्रैल 1948 को दिल्ली स्थित अपने आवास में उनसे शादी कर ली।

अंबेडकर की दलित राजनीति और विचारधारा पर खड़े हुए सवाल
इसके बाद कई तरह की बातें और विवाद शुरू हुए। तमाम बातें कहीं गईं। ब्राह्मणों ने अंबेडकर की दलित राजनीति और विचारधारा पर ही सवाल खड़े कर दिए। वहीं बेसाख्ता नाराज दलितों के एक वर्ग का कहना था कि इससे गलत तो कुछ हो ही नहीं सकता था। क्या बाबा साहेब को शादी के लिए एक ब्राह्मण स्त्री ही मिली थी। कुछ ने कहा कि ये ब्राह्मणों की साजिश है। कुछ ने खिल्ली उड़ाई। उनके बहुत से अनुयायियों ने माना कि वह जो करते हैं, सोचसमझ कर करते हैं, ज्यादा विचारवान और समझदार हैं, लिहाजा उन्होंने उचित ही किया होगा। हालांकि इस शादी के पक्ष में ये तर्क भी आए कि चूंकि ब्राह्मणों के यहां महिलाओं की स्थिति दलित की तरह होती है, इसलिए उन्होंने एक महिला की उद्धार किया है। कुछ दलित बुद्धिजीवियों ने कहा कि दरअसल दलितों में महिलाओं की स्थिति ज्यादा बेहतर है।
मरते दम तक रखा अंबेडकर का ख्याल
विवादों को किनारे रखें तो कोई शक नहीं कि डॉक्टर सविता माई (बाद में उन्हें माई ही कहा जाने लगा था) ने पूरी निष्ठा के साथ मरते दम तक अंबेडकर का ख्याल रखा। उनकी सेवा में जुटी रहीं। बाद के बाबा साहेब का स्वास्थ्य लगातार खराब होता चला जा रहा था। यहां तक की अंबेडकर खुद उनके समर्पण और सेवा की तारीफ करते थे। जब उन्होंने अपनी किताब ''द बुद्धा एंड हिज धर्मा'' लिखी तो पहली बार में ये बगैर भूमिका के प्रकाशित हुई। 15 मार्च 1956 को बाबा साहेब ने इसकी भूमिका लिखी थी, भावुक अंदाज में बताया था कि किस तरह उन्हें पत्नी से मदद मिली। अंबेडकर के निधन के बाद नाराज करीबियों और अनुयायियों ने प्रकाशक पर दवाब डाला कि ये भूमिका हटाई जाए। इस तरह वो फीलिंग्स लोगों के सामने नहीं आ सकी, जो उन्होंने पत्नी के बारे में लिखी थी।
ये बात 1980 में सामने आई, जब पंजाबी बौद्धिस्ट लेखक ने भगवान दास ने उनकी उस भूमिका को दुलर्भ भूमिका के रूप में प्रकाशित किया। उसमें ये जिक्र था - बाबासाहेब के धर्म को शुरूआती ख्याल क्या थे, कैसे उन्होंने किताब लिखनी शुरू की और किन हालात में इसे लिखा। दरअसल जिस तरह बाबा साहेब ब्राह्मणों के प्रति एक तीखे विरोध का भाव रखते थे, लगभग वैसा ही दृष्टिकोण उनके अनुयायियों का भी था। हालांकि बाबा साहेब के लेखन से कहीं नहीं लगता कि उनका ब्राह्मण विरोधी दृष्टिकोण उन्हें उनके प्रति घृणा की स्थिति तक ले जाता है। ये बात उनकी तमाम किताबों और संस्मरणों में भी दिखती है।
कैसे लगा उनके नाम के पीछे अंबेडकर
मसलन अंबेडकर को नाम के साथ लगाने को ही लीजिए। उनका पारिवारिक नाम सकपाल था, लेकिन परिवार ने रत्नागिरी के अम्बावाड़े गांव में रहने के कारण नाम के साथ अम्बावाडे़कर लगाना शुरू किया। अंबेडकर ने खुद लिखा कि कैसे उन्होंने अंबेडकर को नाम के साथ पीछे लगाया। स्कूल में उनके एक ब्राह्मण टीचर थे, जिनका नाम अम्बेडकर था। बाबा साहेब उसके चहेते थे। शिक्षक अक्सर अपना खाना उनके साथ बांटते थे। टीचर को लगता था कि अम्बावाडेकर काफी बेडौल उपनाम है। उन्होंने स्कूल रिकॉर्ड में इसे छोटा करके अंबेडकर कर दिया। अपने स्मरण में वह एक औऱ ब्राह्मण टीचर पेंडसे को भी सकारात्मक तौर पर याद करते हैं। तमाम संस्मरणों में उन्होंने महसूस कराया कि दलितों के हक में आंदोलन और ब्राह्मण व्यवस्था के पुरजोर विरोधी होते होने के बाद भी वह घृणा का तत्व अंदर नहीं पाले हुए थे।
बाबा साहेब के करीबियों के व्यवहार से आहत हुईं सविता माई
अब सविता माई पर लौटते हैं। बाबा साहेब के निधन के बाद पति के करीबियों ने जैसा व्यवहार किया, उससे वह खासी आहत हुईं। उन्हें अंबेडकर आंदोलन से अलग कर दिया गया, क्योंकि वह सवर्ण जाति से ताल्लुक रखती थीं। उन्होंने खुद को दिल्ली में अपने मेहरौली स्थित फार्महाउस तक समेट लिया। बाद में युवा रिपब्लिकन नेता रामदास अठावले औऱ गंगाधर गाडे उन्हें दोबारा अंबेडकर आंदोलन की मुख्यधारा में लौटा लाए। हालांकि उम्र बढ़ने पर वह फिर अलग हो गईं। उन्होंने बाबा साहेब पर संस्मरण ''बाबासाहेबन्चया सहवासत'' लिखा। उन पर बनी फिल्म में योगदान दिया। सविता माई का वर्ष 2003 में 94 साल की उम्र में मुंबई के जेजे अस्पताल में निधन हो गया।
1947 के आसपास बाबा साहेब डायबिटीज, ब्लड प्रेसर से काफी परेशान थे। पैरों में दिक्कत बढ़ने लगी थी। समस्या इस कदर बढ़ी कि उन्हें गंभीरता से इलाज की सलाह दी गई। मुंबई की डॉक्टर शारदा कबीर ने इलाज शुरू किया। वह पुणे के सभ्रांत मराठी ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखती थीं। ऐसे ब्राह्मण परिवार से, जिन्हें चितपावन ब्राह्मण कहा जाता था, यानि सबसे कुलीन ब्राह्मण। पढ़ने में वह काफी कुशाग्र थीं। पुणे से आरंभिक पढाई के बाद मुंबई से एमबीबीएस किया। फिर गुजरात के किसी अस्पताल में अच्छे पद पर काम करने लगीं। फिर नौकरी छोड़कर मुंबई आ गईं। वहीं डॉक्टर सविता इलाज के दौरान अंबेडकर के करीब आईं। दोनों की उम्र में अंतर था। जब शादी हुई तो न केवल ब्राह्मण बल्कि दलितों का बड़ा वर्ग खासा कुपित था। अंबेडकर के बेटे और नजदीकी रिश्तेदारों को भी ये शादी रास नहीं आई। खटास ताजिंदगी बनी रही।
निधन के बाद पत्नी पर लगे गंभीर आरोप
अंबेडकर के निधन के बाद न केवल उनकी पत्नी पर गंभीर आरोप लगाए गए बल्कि उनकी मौत का भी जिम्मेदार ठहराया गया। निधन को कथित साजिश से जोड़कर देखा गया। प्रधानमंत्री नेहरू ने मामले की जांच की मांग की गई। हालांकि जांच के बाद सविता जी को क्लीनचिट मिल गई।
बाबा साहेब की पहली शादी 1906 में हुई थी। बाबासाहेब ही 15 साल के थे औऱ पहली पत्नी रमाबाई और कम उम्र की। शादी के बाद अंबेडकर की पढाई जारी रही। बैरिस्टरी की पढ़ाई करने के लिए वह इंग्लैंड गए। लौटकर दलितों के उत्थान के अभियान से जोरशोर से जुड़ गए। पहली पत्नी से पांच बच्चे हुए। केवल बड़े बेटे य़शवंतराव ही लंबे समय जीवित रहे। बच्चे ज्यादा पढ़ भी नहीं सके थे। यशवंतराव भी केवल मैट्रिक तक ही शिक्षा पा सके थे। हालांकि बाद में यशवंत ने रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया बनाई। विधायक भी बने। बाबा साहेब काफी व्यस्त रहते थे। पारिवारिक जिम्मेदारियों की ओर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाते थे। लंबी बीमारी के बाद रमाबाई का 1935 में निधन हो गया। अगले 13 सालों तक बाबा साहेब ने विवाह के बारे में सोचा भी नहीं।
15 अप्रैल 1948 को की दूसरी शादी
1940 के दशक के आखिर में वह जब भारतीय संविधान को बनाने में बेहद व्यस्त थे तभी स्वास्थ्य की जटिलताएं उभरनी शुरू हुईं। नींद नहीं आती थी। पैरों में न्यूरोपैथिक दर्द रहने लगा। इंसुलिन और होम्योपैथिक दवाएं किसी हद तक ही राहत दे पाती थीं। इलाज के लिए वह बंबई गए। डॉक्टरों ने सलाह दी कि उन्हें अब ऐसे साथी की भी जरूरत है, जो न केवल पाककला में प्रवीण हो बल्कि मेडिकल ज्ञान वाला भी, ताकि उनकी केयर कर सके। चूंकि डॉक्टर सविता बेहद समर्पित तरीके से इलाज कर रही थीं लिहाजा वो उनके करीब भी आते गए। 15 अप्रैल 1948 को दिल्ली स्थित अपने आवास में उनसे शादी कर ली।
अंबेडकर की दलित राजनीति और विचारधारा पर खड़े हुए सवाल
इसके बाद कई तरह की बातें और विवाद शुरू हुए। तमाम बातें कहीं गईं। ब्राह्मणों ने अंबेडकर की दलित राजनीति और विचारधारा पर ही सवाल खड़े कर दिए। वहीं बेसाख्ता नाराज दलितों के एक वर्ग का कहना था कि इससे गलत तो कुछ हो ही नहीं सकता था। क्या बाबा साहेब को शादी के लिए एक ब्राह्मण स्त्री ही मिली थी। कुछ ने कहा कि ये ब्राह्मणों की साजिश है। कुछ ने खिल्ली उड़ाई। उनके बहुत से अनुयायियों ने माना कि वह जो करते हैं, सोचसमझ कर करते हैं, ज्यादा विचारवान और समझदार हैं, लिहाजा उन्होंने उचित ही किया होगा। हालांकि इस शादी के पक्ष में ये तर्क भी आए कि चूंकि ब्राह्मणों के यहां महिलाओं की स्थिति दलित की तरह होती है, इसलिए उन्होंने एक महिला की उद्धार किया है। कुछ दलित बुद्धिजीवियों ने कहा कि दरअसल दलितों में महिलाओं की स्थिति ज्यादा बेहतर है।
मरते दम तक रखा अंबेडकर का ख्याल
विवादों को किनारे रखें तो कोई शक नहीं कि डॉक्टर सविता माई (बाद में उन्हें माई ही कहा जाने लगा था) ने पूरी निष्ठा के साथ मरते दम तक अंबेडकर का ख्याल रखा। उनकी सेवा में जुटी रहीं। बाद के बाबा साहेब का स्वास्थ्य लगातार खराब होता चला जा रहा था। यहां तक की अंबेडकर खुद उनके समर्पण और सेवा की तारीफ करते थे। जब उन्होंने अपनी किताब ''द बुद्धा एंड हिज धर्मा'' लिखी तो पहली बार में ये बगैर भूमिका के प्रकाशित हुई। 15 मार्च 1956 को बाबा साहेब ने इसकी भूमिका लिखी थी, भावुक अंदाज में बताया था कि किस तरह उन्हें पत्नी से मदद मिली। अंबेडकर के निधन के बाद नाराज करीबियों और अनुयायियों ने प्रकाशक पर दवाब डाला कि ये भूमिका हटाई जाए। इस तरह वो फीलिंग्स लोगों के सामने नहीं आ सकी, जो उन्होंने पत्नी के बारे में लिखी थी।
ये बात 1980 में सामने आई, जब पंजाबी बौद्धिस्ट लेखक ने भगवान दास ने उनकी उस भूमिका को दुलर्भ भूमिका के रूप में प्रकाशित किया। उसमें ये जिक्र था - बाबासाहेब के धर्म को शुरूआती ख्याल क्या थे, कैसे उन्होंने किताब लिखनी शुरू की और किन हालात में इसे लिखा। दरअसल जिस तरह बाबा साहेब ब्राह्मणों के प्रति एक तीखे विरोध का भाव रखते थे, लगभग वैसा ही दृष्टिकोण उनके अनुयायियों का भी था। हालांकि बाबा साहेब के लेखन से कहीं नहीं लगता कि उनका ब्राह्मण विरोधी दृष्टिकोण उन्हें उनके प्रति घृणा की स्थिति तक ले जाता है। ये बात उनकी तमाम किताबों और संस्मरणों में भी दिखती है।
कैसे लगा उनके नाम के पीछे अंबेडकर
मसलन अंबेडकर को नाम के साथ लगाने को ही लीजिए। उनका पारिवारिक नाम सकपाल था, लेकिन परिवार ने रत्नागिरी के अम्बावाड़े गांव में रहने के कारण नाम के साथ अम्बावाडे़कर लगाना शुरू किया। अंबेडकर ने खुद लिखा कि कैसे उन्होंने अंबेडकर को नाम के साथ पीछे लगाया। स्कूल में उनके एक ब्राह्मण टीचर थे, जिनका नाम अम्बेडकर था। बाबा साहेब उसके चहेते थे। शिक्षक अक्सर अपना खाना उनके साथ बांटते थे। टीचर को लगता था कि अम्बावाडेकर काफी बेडौल उपनाम है। उन्होंने स्कूल रिकॉर्ड में इसे छोटा करके अंबेडकर कर दिया। अपने स्मरण में वह एक औऱ ब्राह्मण टीचर पेंडसे को भी सकारात्मक तौर पर याद करते हैं। तमाम संस्मरणों में उन्होंने महसूस कराया कि दलितों के हक में आंदोलन और ब्राह्मण व्यवस्था के पुरजोर विरोधी होते होने के बाद भी वह घृणा का तत्व अंदर नहीं पाले हुए थे।
बाबा साहेब के करीबियों के व्यवहार से आहत हुईं सविता माई
अब सविता माई पर लौटते हैं। बाबा साहेब के निधन के बाद पति के करीबियों ने जैसा व्यवहार किया, उससे वह खासी आहत हुईं। उन्हें अंबेडकर आंदोलन से अलग कर दिया गया, क्योंकि वह सवर्ण जाति से ताल्लुक रखती थीं। उन्होंने खुद को दिल्ली में अपने मेहरौली स्थित फार्महाउस तक समेट लिया। बाद में युवा रिपब्लिकन नेता रामदास अठावले औऱ गंगाधर गाडे उन्हें दोबारा अंबेडकर आंदोलन की मुख्यधारा में लौटा लाए। हालांकि उम्र बढ़ने पर वह फिर अलग हो गईं। उन्होंने बाबा साहेब पर संस्मरण ''बाबासाहेबन्चया सहवासत'' लिखा। उन पर बनी फिल्म में योगदान दिया। सविता माई का वर्ष 2003 में 94 साल की उम्र में मुंबई के जेजे अस्पताल में निधन हो गया।
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