डा. भीमराव अम्बेडकर द्वारा लिखित एक पुस्तक ''शूद्रों की खोज'', एक विमर्श (भाग-1)



आधुनिक भारत के इतिहास में जिन महापुरूषों ने अपने विचारो से समाज को प्रभावित किया है वे हैं :- महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू और डा0 भीमराव अम्बेडकर। स्वतंत्र भारत के दुर्भाग्य से गांधी और नेहरू के विचारों की तुलना में डा0 अम्बेडकर के विचारों को उतनी प्राथमिकता नही मिली अथवा यों कहें कि संविधान निर्माता, आरक्षण एवं दलित नेता का लेबल उन पर चस्पा कर दिया गया और उनके विचारों के जन सामान्य में प्रसार की उपेक्षा कर दी गई। यहां तक कि मुझे स्मरण है कि आई.ए.एस. मुख्य परीक्षा में आधुनिक भारत के विचारकों के संबंध में गांधी और नेहरू के साथ रविन्द्र नाथ टैगोर को रखा गया था न कि अम्बेडकर को। किंतु यदि कोई उक्त दो महापुरूषों के साथ डा0 अम्बेडकर के साहित्य को पढ़ेगा तो एक बात स्पष्ट तौर पर अनुभव करेगा कि जहां गांधी और नेहरू ने भारतीय इतिहास के सन्दर्भ में देशी साक्ष्यों की उपेक्षा की है अथवा सजातीय पैकिंग में विजातीय तत्वों को उसी रूप में स्वीकार कर लिया है। वहीं डा0 अम्बेडकर के साहित्य में सजातीय/देशी एवं विजातीय/पाश्चात्य या विदेशियों द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों के मध्य संतुलन स्थापित करते हुए निष्कर्ष निकालने का प्रयास किया गया है।

विगत दिनों डा0 भीमराव अम्बेडकर द्वारा लिखित एक पुस्तक ''शूद्रों की खोज'' अनुवाद ''मोजेज माइकल'' पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। एक वार पुस्तक को हाथ में लेने के पश्चात जब तक उसे समाप्त नहीं कर लिया, उसे छोड़ा ही नहीं। दरअसल यह विषय मेरी भी उत्कंठा का विषय रहा है कि आखिर कैसे समाज की सबसे बड़ी आबादी को जीवन-स्तर के इतने निचले स्तर पर धकेल दिया गया। आखिर वह कौन सी परिस्थितियां थीं जिनमें इतनी बड़ी आबादी ने अपने विजेताओं अथवा शासकों या शत्रुओं के समक्ष समर्पण कर दिया और निम्नतम् जीवन स्तर को स्वीकार कर लिया। क्या इसका संबंध आर्यों के आक्रान्ता होने और शूद्रो के स्थानीय मूल निवासी होने से था। 

जैसा कि पाश्चात्य इतिहासकारों ने कहा है और गांधी-नेहरू एवं साम्यवादी-समाजवादी-सेक्युलर इतिहासकारों ने पाठयपुस्तकों में भरकर आम समाज पर थोपा है। शूद्र जनमानस सहित आम जनभावना इसी तथ्य को स्वीकार करने को विवश है। चूंकि हमने बचपन से आज तक देखा है कि कैसे गांवो में आबादी के एक हिस्से को सार्वजनिक कुओं, मन्दिरों, स्कूलों आदि से वंचित रखा गया और इस सबको समझने के लिए डा0 अम्बेडकर से अधिक योग्य और सक्षम विचारक कौन हो सकता था। वस्तुत: मानें या न माने किंतु ''शूद्रो की खोज'' भारत के इतिहास की खोज है और सम्मानीय डा0 अम्बेडकर ने अपनी इस पुस्तक में यही कार्य किया है। मूल पुस्तक अंग्रेजी में है। ब्यूअर इसे पुस्त्क की समीक्षा न समझें क्योंकि इसके लिए मैं अल्पज्ञ हूं। अपितु भारत के ईशवरत्वं की खोज के डा0 साहब के अथक प्रयास के साथ मेरी सहयात्रा है जो बहुत ही कठिन है। यात्रा में देखे गए दृश्यों के निष्पक्ष भाव से प्रस्तुत करने के दु:साध्य कार्य में मै स्वंय पर आलोचना के कंकड़ फेंके जाते हुए स्पष्ट महसूस कर रहा हूं। क्योंकि मेरे जातीय सहोदर अपने पूर्वाग्रह के कारण और मेरे दलित बंधु मेरे ब्राहम्ण होने के कारण मेरी निष्पक्षता पर कंकड़-पत्थर फेंके यह स्वाभाविक ही है।

डा0 अम्बेडकर अपने प्राक्कथन में डा0 शेरिंग की पुस्तक ''हिन्दू ट्राइब्स एण्ड कास्टस'' के एक प्रस्तर का उल्लेख करते है। इस प्रस्तर में डा0 शेरिंग का मानना है :- ''इस बात का कोई व्यावहारिक महत्व नहीं कि शूद्र लोग आर्य थे अथवा भारत के मूल निवासी, अथवा इन दोनो के संसर्ग से उत्पन्न होने वाली जनजातियां और उनकी अपनी अलग ''वैयत्कितता'' यदि वह कभी रही भी थी, तो पूरे तौर पर लुप्त हो चुकी है।''

इस प्रस्तर पर डा0 अम्बेडकर की निष्पक्ष दृष्टि और तीखी टिप्पणी पुस्तक के मिजाज को समझने के लिए काफी है। डा0 साहब का मत देखें - ''यह मत दो त्रुटियों पर आधारित है। पहली, आज के शूद्र विषम जातीय संस्ततियों के मूल शूद्रों से भिन्न हैं। दूसरी, शूद्रों के मामले में रूचि का केन्द्रीय विषय शूद्र 'जन' नहीं है बल्कि पीड़ा और दण्ड की वह वैधानिक व्यवस्था है। जिसका शिकार वे बनते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि पीड़ा और दण्ड की यह व्यवस्था ब्राहम्णों ने मूल रूप में आर्य समुदाय के शूद्रो के लिए बनाई थी, जो अब एक पृथक भिन्न अलग पहचान रखने वाले समुदाय के रूप में अस्तित्वहीन हो चुके हैं। डा0 अम्बेडकर इस व्याख्या को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि मेरी व्याख्या यह है कि कालांतर में भारतीय आर्य समुदाय के शूद्र कठोर ब्राहम्णी नियमों के कारण इतने अवनत हो गए कि सार्वजनिक जीवन में सचमुच बहुत नीची स्थिति में आ गए। इस व्याख्या को आगे लिखने के बजाय फिलहाल यहीं छोड़ते है क्योंकि इस व्याख्या का विस्तार इस पुस्त्क के मूल विषय ''शूद्रो की खोज'' तक जाता है। किंतु मेरा ध्यान यहां एक अन्य बिन्दु की ओर जा रहा है जिसका यहां उल्लेख करना मुझे प्रासंस्कि लगता है। शेरिंग की पुस्तक ''हिन्दू ट्राइब्स एण्ड कास्टस'' के प्रारम्भिक प्रस्तर की अपनी व्याख्या में डा0 अम्बेडकर दो चीजें उठाते हैं ?

केन्द्रीय विषय के रूप में ''शूद्रजन'' (2) शूद्रों द्वारा मांगी गई और भोगी जा रही पीड़ा और दण्ड की व्यवस्था। मेरी दृष्टि में पाश्चात्य विचारकों सहित गांधी, नेहरू और समाजवादी- साम्यवादी-धर्म निरपेक्षतावादी इतिहासकारों एवं विचारकों के लिए शूद्रों के आर्य अथवा अनार्य होने का प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं है। अपितु महत्वपूर्ण है - उनकी पीड़ा, वेदना और दर्द। उल्लेखनीय है कि इस पुस्तक के लेखन वर्ष 1946 से पूर्व महात्मा गांधी ''हरिजन'' की खोज कर चुके थे। ''हरिजन'' दलित की भोगी गई पीड़ा और वेदना के प्रति सहानुभूति है जबकि ''शूद्र की खोज'' इस समाज के स्वाभिमान को उसकी जड़ों से खोज निकालने का सद्प्रयास। इस दृष्टि से मेरी नजर में अंबेडकर का प्रयास बहुत महान और नि:स्वार्थ है क्योंकि अन्तत: ''शूद्र की खोज'' हमें भारत की खोज तक पहुंचाती है। इसके विपरीत गांधी द्वारा दलित बस्तियों में जाकर मल साफ करना, उसे हरिजन कहना गांधी को ''महामानव, महापुरूष राष्ट्रपिता बना देता है जबकि दलित अथवा शूद्र को सिवाय सहानुभूति के कुछ भी प्रदान नहीं करता। ''हरिजन'' अलंकारिक है जबकि ''शूद्र की खोज वास्तविक। ठीक इसी तरह नेहरू की ''डिस्कवरी ऑफ इण्डिया'' निरन्तर भारत को भारत से दूर और बहुत दूर ले जा रही है। इन तीनों तथ्यों के निहितार्थ बहुत गहरे हैं बहुत ही गहरें।

पुस्तक का प्राक्कथन संक्षेप में पुस्तक का ही सार है। अत: उसे यहीं छोड़ रहे हैं।

Comments